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अ॒भ्य॑भि॒ हि श्रव॑सा त॒तर्दि॒थोत्सं॒ न कं चि॑ज्जन॒पान॒मक्षि॑तम् । शर्या॑भि॒र्न भर॑माणो॒ गभ॑स्त्योः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhy-abhi hi śravasā tatardithotsaṁ na kaṁ cij janapānam akṣitam | śaryābhir na bharamāṇo gabhastyoḥ ||

पद पाठ

अ॒भिऽअ॑भि । हि । श्रव॑सा । त॒तर्दि॑थ । उत्स॑म् । न । कम् । चि॒त् । ज॒न॒ऽपान॑म् । अक्षि॑तम् । शर्या॑भिः । न । भर॑माणः । गभ॑स्त्योः ॥ ९.११०.५

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:110» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (श्रवसा) अपने ज्ञानरूप ऐश्वर्य्य से (अभ्यभि) प्रत्येक उपासक के (ततर्दिथ) दुर्गुणों का नाश करते हैं, (न) जैसे कोई (अक्षितं) जल से भरे हुए (उत्सं) उत्सरणयोग्य जलवाले (जलपानं, कंचित्) वापी आदि जलाधार को मलिन जल निकालकर स्वच्छ बनाता है, (हि) निश्चय करके (न) जैसे सूर्य्य (गभस्त्योः) अपनी किरणों की (शर्याभिः) कर्मशक्ति द्वारा (भरमाणः) सब विकारों को दूर करके प्रजा का पालन करता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का आशय यह है कि जिस प्रकार सूर्य्य अपनी गरमी तथा प्रकाश शक्ति से प्रजा के सब विकार तथा अपगुणों को दूर करके शुभगुण देता है, इसी प्रकार परमात्मा सदाचारी पुरुषों के दोष दूर करके उनमें सद्गुणों का आधान कर देता है, इसलिये पुरुष को कर्मयोगी तथा सदाचारी होना परमावश्यक है ॥५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् !  त्वं  (श्रवसा)  स्वकीयज्ञानरूपैश्वर्येण  (अभ्यभि) प्रत्येकोपासकस्य  (ततर्दिथ)  दुर्गुणान्  नाशयसि (न) यथा कश्चिद् (कञ्चित्) कमपि (अक्षितम्)। जलपूर्णं (जनपानं, उत्सं) उदपानं संशोध्य जलं निर्मलं करोति (न) यथा  (गभस्त्योः) सूर्य्यकिरणयोः (शर्याभिः) शक्तिभिः (भरमाणः) पूर्णं कुर्वाणः दोषरहितं करोति ॥५॥